Saturday, May 23, 2020

मध्यप्रदेश में फिर से लोकप्रिय हो रहा है सागौन का उत्पादन

 कोई जवाब नहीं सागौन की मज़बूती और खूबसरती का 
इंदौर: 23 मई 2020: (मध्यप्रदेश स्क्रीन हिंदी डेस्क)::
कोरोना युग में जीवन शैलियाँ बदल रही हैं। अब जहां ज़िंदगी जहां नए रुख अख्तियार करेगी और उसे खूबसरत बनाने के नए अंदाज़ भी बाजार में निकलेंगे वहीँ जीवन यापन के ढंग तरीकों में भी तब्दीली आएगी। अब कृषि पहले जैसी न रहेगी। वन विभाग, इन्दौर की टिश्यू कल्चर लेब में आधुनिकतम तकनीक से सागौन के उच्च गुणवत्ता वाले जो पौधे तैयार किये जा रहे है उनके उत्पादन से तो यही संकेत मिलता है।  
आप जानते हैं न सागौन? यह टीकवुड द्विबीजपत्री पौधा है। हराभरा पर्यावरण चाहते हैं तो सागौन से दोस्ती कीजिये। यकीन मानिये मन भी हराभरा ही रहेगा। यह चिरहरित यानि वर्ष भर हरा-भरा रहने वाला पौधा है। इनके क्षेत्र में या इनके आसपास रहने से माहौल हराभरा रहेगा ही। यह काफी लम्बा चौड़ा होता है। सागौन का वृक्ष प्रायः 80 से 100 फुट लम्बा होता है। कभी कभी से ज़्यादा भी हो सकता है। इसका वृक्ष काष्ठीय होता है। इसकी लकड़ी हल्की, मजबूत और काफी समय तक चलनेवाली होती है। इसलिए मज़बूती के मामले में भी सका कोई जवाब नहीं होता। इसके पत्ते काफी बड़े बड़े होते हैं।  साथ ही फूल उभयलिंगी और सम्पूर्ण होते हैं। हर काल में लगातार लोक प्रिय बने रहे सागौन का वानस्पतिक नाम टेक्टोना ग्रैंडिस (Tectona grandis) यह बहुमूल्य इमारती लकड़ी है। सदियों से इसके इस्तेमाल को पहल दी जाती है। इसका इतिहास भी काफी लम्बा है। 
सागौन को संस्कृत में 'शाक' कहा जाता है।  लगभग दो सहस्र वर्षों से भारत में यह ज्ञात है और अधिकता से व्यवहृत होती आ रही है। वर्बीनैसी (Verbenaceae) कुल का यह वृहत्‌, पर्णपाती वृक्ष है। यह शाखा और शिखर पर ताज ऐसा चारों तरफ फैला हुआ होता है। भारत, बरमा और थाइलैंड का यह देशज है, पर फिलिपाइन द्वीप, जावा और मलाया प्रायद्वीप में भी बहुतायत में पाया जाता है। भारत में अरावली पहाड़ में पश्चिम में पूर्वी देशांतर अर्थात  झांसी तक में भी पाया जाता है। इसकी लोकप्रियता का अनुमान यहाँ से लगाइये कि असम और पंजाब में भी यह सफलता से उगाया गया है। साल में 50 इंच से अधिक वर्षा वाले और25° से 27° सें. ताप वाले स्थानों में यह अच्छा उपजता है। इसके लिए तीन हज़ार फुट की ऊँचाई के जंगल अधिक उपयुक्त हैं। इससे इसे बहता हुआ पानी आसानी से दिया जा सकता है। खासियत यह भी कि सब प्रकार की मिट्टी में यह उपज सकता है पर पानी का निकास रहना अथवा अधोभूमि का सूखा रहना आवश्यक है। गरमी में इसकी पत्तियाँ अक्सर ही  झड़ जाती हैं। गरम स्थानों में जनवरी में ही पत्तियाँ गिरने लगती हैं पर अधिकांश स्थानों में मार्च तक पत्तियाँ हरी रहती हैं। पत्तियाँ एक से दो फुट लंबी और 6 से 12 इंच चौड़ी होती है। इसका लच्छेदार फूल सफेद या कुछ नीलापन लिए सफेद होता है और बहुत ही सुंदर लगता है। इसके बीज गोलाकार होते हैं और पक जाने पर गिर पड़ते हैं। बीज में तेल रहता है। बीज बहुत धीरे-धीरे अँकुरते हैं। पेड़ साधारणतया 100 से  150 फुट ऊँचे और धड़ 3 से 8 फुट व्यास के होते हैं। डोर से देखो तो इनका कद एक अलग किस्म की दिव्य भव्यता का निर्माण करता महसूस होता है।  
इसकी औषधीय खूबियां भी बहुत हैं। इसके धड़ की छाल आधा इंच मोटी, धूसर या भूरे रंग की होती है। इनका रसकाष्ठ सफेद और अंत:काष्ठ हरे रंग का होता है। अंत:काष्ठ की गंध सुहावनी और प्रबल सौरभ वाली होती है। गंध बहुत दिनों तक कायम रहती है। इसकी छाल और फूल दोनों ही विभिन्न दवाएं बनाने के काम आते हैं। 
सागौन की लकड़ी बहुत अल्प सिकुड़ती और बहुत मजबूत होती है। इस पर पॉलिश जल्द चढ़ जाती है जिससे यह बहुत आकर्षक हो जाती है। कई सौ वर्ष पुरानी इमारतों में यह ज्यों की त्यों पाई गई है। दो सहस्र वर्षों के पश्चात्‌ भी सागौन की लकड़ी अच्छी अवस्था में पाई गई है। सागौन के अंत:काष्ठ को दीमक आक्रांत नहीं करती यद्यपि रसकाष्ठ को खा जाती है।
सागौन उत्कृष्ट कोटि के जहाजों, नावों, बोंगियों इत्यादि भवनों की खिड़कियों और चौखटों, रेल के डिब्बों और उत्कृष्ट कोटि के फर्नीचर के निर्माण में प्रधानतया प्रयुक्त होता है।
अच्छी भूमि पर दो वर्ष पुराने पौद (sudling), जो ५ से १० फुट ऊँचे होते हैं, लगाए जाते हैं और लगभग 60 वर्षों में यह औसत 60  फुट का हो जाता है और इसके धड़ का व्यास डेढ़ से दो फुट का हो सकता है। अब इसे जलवायु का ही प्रभाव कहा जा सकता है कि बरमा में 80 वर्ष की उम्र के सागौन पेड़ का घेरा 2 फुट व्यास का हो जाता है, यद्यपि भारत में इतना मोटा होने में 200 वर्ष लग सकते हैं। भारत के ट्रावनकोर, कोचीन, मद्रास, कुर्ग, मैसूर, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के जंगलों के सागौन की उत्कृष्ट लकड़ियाँ अधिकांश बाहर चली जाती हैं। बरमा का सागौन पहले पर्याप्त मात्रा में भारत आता था पर अब वहाँ से ही बाहर चला जाता है। थाईलैंड की लकड़ी भी पाश्चात्य देशों को चली जाती है हालांकि इसकी मांग भारत में कम नहीं है लेकिन विदेश से अधिक धन मिल जाता है। अब इसकी पैदावार बढ़ाने पर भी तीव्रता से विचार हो रहा है। 

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