Saturday, October 31, 2020

राष्ट्रीय एकता दिवस के उपलक्ष में आयोजित मार्चपास्ट

 देशभक्ति गीतों की धुनों से बना विशेष माहौल 


सागर
: 31 अक्टूबर 2020: (मध्य प्रदेश स्क्रीन ब्यूरो)::

सरदार बल्लभ भाई पटेल की जयंती के अवसर पर शनिवार को स्थानीय पुलिस प्रशिक्षण मैदान में राज्य पुलिस और अन्य वर्दीधारी बलों तथा अन्य एजेन्सियों द्वारा भव्य मार्चपास्ट का आयोजन किया गया। जिसमें देशभक्ति गानों की धुनें प्रस्तुत की गई। इस अवसर पर कलेक्टर श्री दीपक सिंह, पुलिस अधीक्षक श्री अतुल सिंह, नगर निगम कमिश्नर श्री आरपी अहिरवार नगर दण्डाधिकारी श्री प्रकाश नायक, डीआईजी श्री वर्मा, उपायुक्त डॉ. प्रणय कमल खरे सहित अन्य अधिकारी कर्मचारी मौजूद थे। कार्यक्रम का संचालन श्री अरविन्द जैन ने किया।  

Saturday, October 24, 2020

यह बीसवीं-इक्कीसवीं सदी है किसकी !!

 Friday: 23rd  October 2020 at 13:12 IST

  विख्यात गांधीवादी चिंतक और इतिहासकार धर्मपाल की पुण्यतिथि 24 अक्टूबर पर विशेष आलेख  


भोपाल
: 23 अक्टूबर 2020: (मध्यप्रदेश स्क्रीन ब्यूरो)::

पृथ्वी के कष्टों का निवारण करने के लिए अवतार-पुरूष जन्म लिया करते हैं, यह मान्यता भारतवर्ष में अत्यन्त प्राचीन समय से चली आ रही है। इसलिए 1915 में भारत के लोगों ने सहज ही यह मान लिया कि भगवान ने उनका दु:ख समझ लिया है और उस दु:ख को दूर करने के लिए व भारतीय जीवन में एक नया संतुलन लाने के लिए महात्मा गाँधी को भेजा गया है। गाँधीजी के प्रयासों से भारतीय सभ्यता की दास्तान का दु:ख बहुत कुछ कट ही गया, लेकिन भारतीय जीवन में कोई संतुलन नहीं आ पाया। गाँधीजी 1948 के बाद जीवित रहते तो भी इस नए संतुलन के लिए तो कुछ और ही प्रयत्न करने पड़ते।

जो काम महात्मा गाँधी पूरा नहीं कर पाए उसे पूरा करने के प्रयास हमें आगे-पीछे तो आरंभ करने ही पड़ेंगे। आधुनिक विश्व में भारतीय जीवन के लिए भारतीय मानव व काल के अनुरूप कोई नया संतुलन ढूँढें बिना तो इस देश का बोझ हल्का नहीं हो पाएगा और उस नए ठोस धरातल को ढूँढने का मार्ग वही है जो महात्मा गांधी का था। इस देश के साधारणजन के मानस में पैठकर, उसके चित्त व काल को समझकर ही, इस देश के बारे में कुछ सोचा जा सकता है।

पर शायद हमें यह आभास भी है कि भारतीय चित्त वैसा साफ-सपाट नहीं है जैसा मानकर हम चलना चाहते हैं। वास्तव में तो वह सब विषयों पर सब प्रकार के विचारों से अटा पडा़ है और वे विचार कोई नए नहीं हैं। वे सब पुराने ही है। शायद ऋग्वेद के समय से वे चले आ रहे है या शायद गौतम बुद्ध के समय से कुछ विचार उपजे होंगे या फिर महावीर के समय से। पर जो भी ये विचार है जहां से भी वे आए हैं वे भारतीय मानस में बहुत गहरे बैठे हुए हैं। और शायद हम यह बात जानते हैं। लेकिन हम इस वास्तविकता को समझना नहीं चाहते। इसे किसी तरह नकार कर भारतीय मानस व चित्त की सभी वृत्तियों से आंखे मूंदकर अपने लिए कोई एक नई दुनिया हम गढ़ लेना चाहते हैं।

इसलिए अपने मानस को समझने की सभी कोशिशें हमें बेकार लगती हैं। अठारहवीं-उन्नीसवीं सदी के भारत के इतिहास का मेरा अध्ययन भी भारतीय मानस को समझने का एक प्रयास ही था। उस अध्ययन से अंग्रेजों के आने से पहले के भारतीय राज-समाज की भारत के लोगों के सहज तौर-तरीकों की एक समझ तो बनी। समाज की जो भौतिक व्यवस्थाएं होती है, विभिन्न तकनीकें होती है, रोजमर्रा का काम चलाने के जो तरीके होते हैं, उनका एक प्रारूप-सा तो बना पर समाज के अंतर्मन की उसके मानस की चित्त की कोई ठीक पकड़ उस काम से नहीं बन पाई। मानस को पकड़ने का, चित्त को समझने का मार्ग शायद अलग होता है।

हममें से कुछ लोग शायद मानते हों कि वे स्वयं भारतीय मानस, चित्त व काल की सीमाओं से सर्वथा मुक्त हो चुके हैं। अपनी भारतीयता को लाँघकर वे पश्चिमी आधुनिकता या शायद किसी प्रकार की आदर्श मानवता के साथ एकात्म हो गए है। ऐसे कोई लोग है तो उनके लिए बीसवीं सदी की दृष्टि से कलियुग को समझना और भारतीय कलियुग को पश्चिम की बीसवीं सदी के रूप में ढालने के उपायों पर विचार करना संभव होता होगा, पर ऐसा अक्सर हुआ नहीं करता। अपने स्वाभाविक देश-काल की सीमाओं-मर्यादाओं से निकालकर किसी और के युग में प्रवेश कर जाना असाधारण लोगों के बस की भी बात नहीं होती। जवाहरलाल नेहरू जैसों से भी नहीं हो पाया होगा। अपनी सहज भारतीयता से पूरी तरह मुक्त वे भी नहीं हो पाए होंगें। महात्मा गाँधी के कहने के अनुसार भारत के लोगों में जो एक तर्कातीत और विचित्र-सा भाव है, उस विचित्र तर्कातीत भाव का शिकार होने से जवाहरलाल नेहरू भी नहीं बच पाए होगें फिर बाकी लोगों की तो बात ही क्या। वे तो भारतीय मानस की मर्यादाओं से बहुत दूर जा ही नहीं पाते होंगे।

भारत के बड़े लोगों ने आधुनिकता का एक बाहरी आवरण सा जरूर ओढ़ रखा है। पश्चिम के कुछ संस्कार भी शायद उनमें आए है। पर चित्त के स्तर पर वे अपने को भारतीयता से अलग कर पाए हो, ऐसा तो नहीं लगता। हां, हो सकता है कि पश्चिमी सभ्यता के साथ अपने लंबे और घनिष्ठ संबंध के चलते कुछ दस-बीस-पचास हजार, या शायद लाखों लोग, भारतीयता से बिल्कुल दूर हट गए हों। पर यह देश तो दस-बीस-पचास हजार या लाख लोगों का नहीं है। यह तो 125 करोड़ अस्सी करोड़ लोगों की कथा है।

भारतीयता की मर्यादाओं से मुक्त हुए ये लाखों आदमी जाना चाहेंगें तो यहाँ से चले ही जाएँगे। देश अपनी अस्मिता के हिसाब से अपने मानस, चित्त व काल के अनुरूप चलने लगेगा तो हो सकता है इनमें से भी बहुतेरे फिर अपने सहज चित्त-मानस में लौट आएँ। जिनका भारतीयता से नाता पूरा टूट चुका है, वे तो बाहर कही भी जाकर बस सकते हैं। जापान वाले जगह देंगे तो वहाँ जाकर रहने लगेंगे। जर्मनी में जगह हुई जर्मनी में रह लेंगे। रूस में कोई सुंदर जगह मिली तो वहाँ चले जाएंगे। अमेरिका में तो वे अब भी जाते ही हैं। दो-चार लाख भारतीय अमेरिका जाकर बसे ही हैं और उनमें बड़े-बड़े इंजीनियर, डॉक्टर, दार्शनिक, साहित्यकार, विज्ञानविद् और अन्य प्रकार के विद्वान भी शामिल है। पर इन लोगों का जाना कोई बहुत मुसीबत की बात नहीं है। समस्या उन लोगों की नहीं जो भारतीय चित्त व काल से टूटकर अलग जा बसे है। समस्या तो उन करोड़ों लोगों की है जो अपने स्वाभाविक मानस व चित्त के साथ जुड़कर अपने सहज काल में रह रहे है। इन लोगों के बल पर देश को कुछ बनाना है तो हमें उस सहज चित्त, मानस व काल को समझना पडे़गा।

भारतीय वर्तमान के धरातल से पश्चिम की बीसवीं सदी का क्या रूप दिखता है, उस बीसवीं सदी और अपने कलियुग में कैसा और क्या संपर्क हो सकता है, इस सब पर विचार करना पडे़गा। यह तभी हो सकता है जब हम अपने चित्त व काल को, अपनी कल्पनाओं व प्राथमिकताओं को और अपने सोचने-समझने व जीने के तौर-तरीकों को ठीक से समझ लेंगे।

(संदर्भ - धर्मपाल समग्र लेखन भाग-1 से साभार)


Thursday, October 22, 2020

हम किसी और के संसार में रहने लगे है ....

Thursday: 22nd October 2020, 14:41 IST 

जनसाधारण की भागीदारी  से ही सम्भव है असली  विकास प्रक्रिया   


भोपाल:  22 अक्टूबर 2020: (*धर्मपाल//मध्यप्रदेश स्क्रीन)::

भारतीय मानस में सृष्टि के विकास के क्रम और उसमें मानवीय प्रयत्न और मानवीय ज्ञान-विज्ञान के स्थान की जो छवि अंकित है, वह आधुनिकता से इस प्रकार विपरीत है तो इस विषय पर गहन चिंतन करना पड़ेगा। यहां के तंत्र हम बनाना चाहते हैं और जिस विकास प्रक्रिया को यहां आरंभ करना चाहते हैं, वह तो तभी यहां जड़ पकड़ पाएगी और उसमें जनसाधारण की भागीदारी तो तभी हो पायेगी जब वह तंत्र और विकास प्रक्रिया भारतीय मानस और काल दृष्टि के अनुकूल होगी। इसलिए इस बात पर भी विचार करना पडे़गा कि व्यवहार में भारतीय मानस पर छाए विचारों और काल की भारतीय समझ के क्या अर्थ निकलते है? किस प्रकार के व्यवहार और व्यवस्थाएं उस मानस व काल में सही जँचते हैं? सम्भवत: ऐसा माना जाता है कि मानवीय जीवन और मानवीय ज्ञान की क्षुद्रता का जो भाव भारतीय सृष्टि-गाथा में स्पष्ट झलकता है, वह केवल अकर्मण्यता को ही जन्म दे सकता है पर यह तो बहुत सही बात है। किसी भी विश्व व काल दृष्टि का व्यवाहारिक पक्ष तो समय सापेक्ष होता है। अलग-अलग संदर्भों में अलग-अलग समय पर उस दृष्टि की अलग-अलग व्याख्याएं होती जाती हैं। इन व्याख्याओं से मूल चेतना नहीं बदलती पर व्यवहार और व्यवस्थाएं बदलती रहती हैं और एक ही सभ्यता कभी अकर्मण्यता की और कभी गहन कर्मठता की ओर अग्रसर दिखाई देती है।

भारतीय परंपरा में किसी समय विधा और ज्ञान का दो धाराओं में विभाजन हुआ है। जो विधा इस नश्वर सतत परिवर्तनशील, लीलामयी सृष्टि से परे के सनातन ब्रह्म की बात करती है। उस ब्रह्म से साक्षात्कार का मार्ग दिखाती है वह परा विधा है। इसके विपरीत जो विधाएं इस सृष्टि के भीतर रहते हुए दैनंदिन की समस्याओं के समाधान का मार्ग बतलाती हैं। साधारण जीवन-यापन को संभव बनाती हैं। वे अपरा विधाएं है। और ऐसा माना जाता है कि परा विधा, अपरा विधाओं से ऊँची है।

अपरा के प्रति हेयता का भाव शायद भारतीय चित्त का मौलिक भाव नहीं है। मूल बात शायद अपरा की हीनता की नहीं थी। कहा शायद यह गया था कि अपरा में रमते हुए यह भूल नहीं जाना चाहिए कि इस नश्वर सृष्टि से परे सनातन सत्य भी कुछ है। इस सृष्टि में दैनिक जीवन के विभिन्न कार्य करते हुए परा के बारे में चेतन रहना चाहिए। अपरा का सर्वदा परा के आलोक में नियमन करते रहना चाहिए। अपरा विधा की विभिन्न मूल संहिताओं में कुछ ऐसा ही भाव छाया मिलता है। पर समय पाकर परा से अपरा के नियमन की यह बात अपरा की हेयता में बदल गई है। यह बदलाव कैसे हुआ इस पर तो विचार करना पडे़गा। भारतीय मानस व काल के अनुरूप परा और अपरा में सही संबंध क्या बैठता है, इसकी भी कुछ व्याख्या हमें करनी ही पड़ेगी।

पर यह ऊँच-नीच वाली बात तो बहुत मौलिक नहीं दिखती। पुराणों में इस बारे में चर्चा है। एक जगह ऋषि भारद्वाज कहते है कि यह ऊँच-नीच वाली बात कहां से आ गई? मनुष्य तो सब एक ही लगते है, वे अलग-अलग कैसे हो गए? महात्मा गाँधी भी यही कहा करते थे कि वर्णो में किसी को ऊँचा और किसी को नीचा मानना तो सही नहीं दिखता। 1920 के आस-पास उन्होंने इस विषय पर बहुत लिखा और कहा। पर इस विषय में हमारे विचारों का असंतुलन जा नहीं पाया। पिछले हजार दो हजार वर्षों में भी इस प्रश्न पर बहस रही होगी। लेकिन स्वस्थ वास्तविक जीवन में तो ऐसा असंतुलन चल नहीं पाता। वास्तविक जीवन के स्तर पर परा व अपरा के बीच की दूरी और ब्राह्मण व शूद्र के बीच की असमानता की बात भी कभी बहुत चल नहीं पाई होगी। मौलिक साहित्य के स्तर पर भी इतना असंतुलन शायद कभी न रहा हो। यह समस्या तो मुख्यत: समय-समय पर होने वाली व्याख्याओं की ही दिखाई देती है।

पुरूष सूक्त में यह अवश्य कहा गया है कि ब्रह्म के पांवों से शूद्र उत्पन्न हुए, उसकी जंघाओं से वैश्य आए, भुजाओं से क्षत्रिय आए और सिर से ब्राह्मण आए। इस सूक्त में ब्रãह्म और सृष्टि में एकरूपता की बात तो है। थोड़े में बात कहने का जो वैदिक ढंग है उससे यहाँ बता दिया गया है कि यह सृष्टि ब्रह्म का ही व्यास है, उसी की लीला है। सृष्टि में अनिवार्य विभिन्न कार्यो की बात भी इसमें आ गई है। पर इस सूक्त में यह तो कहीं नहीं आया कि शूद्र नीचे है और ब्राह्मण ऊँचे है। सिर का काम पांवों के काम से ऊँचा होता है। यह तो बाद की व्याख्या लगती है। यह व्याख्या तो उलट भी सकती है। पांवों पर ही तो पुरूष धरती पर खडा़ होता है। पांव टिकते हैं तो ऊपर धड़ भी आता है हाथ भी आते हैं। पांव ही नहीं टिकेंगें तो और भी कुछ नहीं आएगा। पुरूष सूक्त में यह भी नहीं है कि ये चारों वर्ण एक ही समय पर बने। पुराणों की व्याख्या से तो ऐसा लगता है कि आरंभ में सब एक ही वर्ण थे। बाद में काल के अनुसार जैसे-जैसे विभिन्न प्रकार की क्षमताओं की आवष्यकता होती गई, वैसे-वैसे वर्ण-विभाजित होते गए।

कर्म और कर्मफल के इस मौलिक सिद्धांत का इस विचार से तो कोई संबंध नहीं है कि कुछ कर्म अपने आप में निकृष्ट होता है और कुछ प्रकार के काम उत्तम। वेदों का उच्चारण करना ऊँचा काम होता है और कपडा़ बुनना नीचा काम, यह बात तो परा-अपरा वाले असंतुलन से ही निकल आई है। और इस बात की अपने यहाँ इतनी यांत्रिक-सी व्याख्या होने लगी है कि बड़े-बड़े विद्वान भी दरिद्रता, भुखमरी आदि जैसी सामाजिक अव्यवस्थाओं को कर्मफल के नाम पर डाल देते हैं। श्री ब्रह्मा नंद सरस्वती जैसे जोशीमठ के ऊँचे शंकराचार्य तक कह दिया करते थे कि दरिद्रता तो कर्मो की बात है। करूणा, दया, न्याय आदि जैसे भावों को भूल जाना तो कर्मफल के सिद्धांत का उद्देश्य नहीं हो सकता। यह तो सही व्याख्या नहीं दिखती।

कर्मफल के सिद्धांत का अर्थ तो शायद कुछ और ही है। क्योंकि कर्म तो सब बराबर ही होते हैं। लेकिन जिस भाव से, जिस तन्मयता से कोई कर्म किया जाता है वही उसे ऊँचा और नीचा बनाता है। वेदों का उच्चारण यदि मन लगाकर ध्यान से किया जाता है तो वह ऊँचा कर्म है। उसी तरह मन लगाकर ध्यान से खाना पकाया जाता है तो वह भी ऊँचा कर्म है। और भारत में तो ब्राह्मण लोग खाना बनाया ही करते थे। अब भी बनाते हैं। उनके वेदोच्चारण करने के कर्म में और खाना बनाने में बहुत अंतर है। पर वेदोच्चारण ऐसा किया जाए जैसे बेगार काटनी हो, या खाना ऐसे बनाया जाये जैसे सिर पर पड़ा कोई भार किसी तरह हटाना हो, तो दोनो की कर्म गडबड़ हो जाएंगे।

परा-अपरा और वर्ण व्यवस्था पर भी अनेक व्याख्याऐं होंगी। उन व्याख्याओं को देख-परखकर आज के संदर्भ में भारतीय मानव व काल की एक नई व्याख्या कर लेना ही विद्वता का उददेश्य हो सकता है। परंपरा का इस प्रकार नवीनीकरण करते रहना मानस को समयानुरूप व्यवहार का मार्ग दिखाते रहना ही हमेशा से ऋषियों, मुनियों और विद्वानों का काम कर रहा है।

*धर्मपाल एक विख्यात विचारक होने के साथ साथ गांधीवादी चिंतक भी हैं